हर फतवा सब पर लागू नहीं : इस्लामी विद्वान

नई दिल्ली : बांह पर टैटू है तो नमाज जायज नहीं, मुस्लिम महिला रिसेप्शनिस्ट नहीं हो सकती अथवा मोबाइल फोन में पवित्र कुरान की आयतें अपलोड नहीं की जा सकतीं। ये कुछ ऐसे फतवे हैं जिनको लेकर हाल के दिनों में कई सवाल खड़े हुए हैं। इनमें सबसे बड़ा सवाल यह कि किसी संस्था या मुफ्ती की ओर से जारी किया गया फतवा क्या सभी मुसलमानों पर लागू होगा?
प्रमुख मुस्लिम विद्वानों की माने तो हर फतवा सभी पर लागू नहीं हो सकता क्योंकि यह संदर्भ और परिस्थिति विशेष पर निर्भर करता है, हालांकि मूल आस्था से जुड़े फतवों पर किसी मुसलमान के लिए अमल करना अनिवार्य है। जामिया मिलिया इस्लामिया के इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर अख्तरूल वासे का कहना है कि ज्यादातर फतवों के साथ परिस्थिति और संदर्भ जुड़ा होता है और ऐसे में वह सब पर लागू नहीं हो सकते।
वासे ने कहा, ‘सभी फतवे सब पर लागू नहीं हो सकते। फतवा किसी सवाल का जवाब होता है। ऐसे में महत्वपूर्ण बात यह है कि सवाल किस परिस्थिति और संदर्भ में पूछा गया है। उदाहरण के तौर पर मुस्लिम महिला के रिसेप्शनिस्ट होने से जुड़ा फतवा सब पर लागू नहीं हो सकता।’ देश की प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्था ‘दारुल उलूम देवबंद’ के फतवा विभाग ‘दारूल इफ्ता’ की ओर से हाल ही में दिए गए कई फतवों की खासी चर्चा रही।
दारूल उलूम की तरह सुन्नी मुसलमानों की एक अन्य संस्था बरेली मरकज भी कई बार ऐसे फतवे देता रहा है। कुछ महीने पहले उसने फतवा दिया था कि इस्लाम में कृत्रिम गर्भाधान नाजायज है। इस्लामी मसलों पर कई अंतरराष्ट्रीय शोधों से जुड़े रहे प्रो. जुनैद हारिस का कहना है, ‘यह स्पष्ट रूप से जान लेने की जरूरत है कि फतवा खुदा का हुक्म नहीं है। यह कुरान और हदीस नहीं है जो पूरी तरह सही हो। अगर कोई फतवा अटपटा लगता है तो उसके के बारे में किसी और विद्वान से पता किया जा सकता है। एक फतवा सभी पर लागू नहीं हो सकता।’
उन्होंने कहा, ‘वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदली हैं। जरूरी नहीं है कि आज के दौर की हर चीज के बारे में कुरान या हदीस में जिक्र किया गया हो। ऐसे में कोई भी विद्वान कुरान और हदीस की रोशनी में किसी मामले पर अपनी राय देता है तो यह जरूरी नहीं है कि उसकी राय हमेशा सही हो।’ दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद का कहना है, ‘फतवे को कोई आदेश या फरमान नहीं मानिए। यह इस्लामी नजरिए की बात है जिस पर लोग अमल करते हैं। वैसे हर मुसलमान का फर्ज है कि वह शरिया के मुताबिक कही गई बातों पर अमल करे।’
मुस्लिम महिलाओं के रिसेप्शनिस्ट नहीं होने से जुड़े फतवे के बारे में प्रो. वासे कहते हैं, ‘इस्लाम सभी पुरुषों और महिलाओं को मान-मर्यादा में रहकर कोई काम करने की इजाजत देता है। ऐसे में इस तरह के फतवे का कोई मतलब नहीं है।’

Posted by Creative Dude on 2:51 AM. Filed under . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0

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