खांसी में कारगर नहीं एंटीबायोटिक दवाएं
Health 12:22 AM
लैंसेट जर्नल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सीने में होने वाले हल्के संक्रामक रोगों की वजह से कफ की तकलीफ का लगातार सामना कर रहे मरीजों को एंटीबायोटिक दवाओं से राहत नहीं मिलती।
यूरोप के 12 देशों के लगभग 2000 लोगों ने इस शोध में अपनी तकलीफ़ के बारे में बताया। शोध में यह पाया गया कि एंटी-बायोटिक दवाओं से इलाज़ किए गए मरीज़ों के लक्षणों और उसकी गंभीरता पर प्रायोगिक दवाओं का इस्तेमाल कर रहे रोगियों की तुलना में कोई अंतर नहीं आया।
लेकिन विशेषज्ञ सावधान करते हैं कि अगर निमोनिया की संभावना हो तो मर्ज़ की गंभीरता को देखते हुए एंटी-बायोटिक दवाओं का इस्तेमाल फिर भी किया जाना चाहिए।
शोध का नेतृत्व करने वाले साउथैम्पटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल लिटिल कहते हैं कि जिन मरीज़ों में निमोनिया होने का संदेह न हो, उनकी सांस से जुड़ी तकलीफों के इलाज में एमॉक्सिलिन एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से कोई राहत नहीं मिलेगी और इससे नुकसान भी हो सकता है।
वह कहते हैं कि शुरुआती इलाज़ के दौरान एंटी-बायोटिक दवाओं के ज्यादा इस्तेमाल से, खासकर उस समय जबकि वे निष्प्रभावी हों, प्रतिरोधक क्षमता बढ़ सकती है। साथ ही दस्त, बेचैनी और उल्टी जैसे दूसरे असर भी हो सकते हैं।
पॉल कहते हैं कि हमारे नतीजों से पता चलता है कि लोग अपने आप ही ठीक हो जाते हैं, लेकिन कम ही मरीज़ों को एंटी-बायोटिक दवाओं से राहत पहुंचेगी और इन लोगों की पहचान की चुनौती बरकरार है। इस बारे में पहले भी शोध हुए हैं कि सीने में संक्रमण संबंधित तकलीफों में एंटी-बायोटिक दवाएं कारगर हैं या नहीं।
खासकर सांस की तकलीफ, कमजोरी, तेज बुखार जैसे लक्षणों में इसके इस्तेमाल से उल्टे नतीज़े भी निकले हैं। छाती से संबंधित समस्याओं का सामना कर रहे बुजुर्गों में हालात बिगड़ने की आशंका रहती है।
शोध में रोगियों को दो समूहों में बांटा गया है। एक जिन्हें एंटी-बायोटिक दवाएं दी गईं और दूसरे जिन्हें प्रायोगिक तौर पर सात दिनों के लिए रोजाना तीन बार चीनी की गोली के रूप में कोई दूसरी दवा दी गई।
अध्ययन में दोनों समूहों के मरीज़ों के लक्षणों की अवधि और उनकी गंभीरता में मामूली अंतर पाया गया। 60 बरस से ज़्यादा उम्र के मरीजों के मामले में भी यही नतीज़े निकले। शोध में इस उम्र वाले लोगों की संख्या एक तिहाई रखी गई थी।
प्रायोगिक तौर पर दूसरी दवा ले रहे मरीज़ों की तुलना में एंटी-बायोटिक दवाओं का इस्तेमाल कर रहे मरीज़ों में मिचली, बेचैनी और दस्त जैसी दूसरी समस्याएं ज्यादा पाई गईं।
प्रतिरोधक क्षमता
ऐसे मामलों में डॉक्टर के पास जाने वाले ज़्यादातर लोगों की तकलीफ़ दरअसल छाती में संक्रमण से जुड़ी होती है। 'ब्रिटिश लंग फाउंडेशन' के डॉक्टर निक हॉपकिन्सन को लगता है कि यह शोध उन मामलों में मददगार साबित हो सकता है जहाँ मरीज़ उनसे एंटी-बायोटिक दवाओं की मांग करते हैं।
उन्होंने कहा कि सीने में हल्के संक्रमण की तकलीफ़ का सामना कर रहे मरीज़ इसकी मांग करेंगे। यह अध्ययन डाक्टरों के लिये भी मददगार साबित हो सकता है। वे मरीज़ों को यह सलाह दे सकते हैं कि एंटी-बायोटिक दवाएं उनके लिये सबसे बेहतर विकल्प नहीं है।
डॉक्टर हॉपकिन्सन कहते हैं कि सीने के ज्यादातर संक्रमण अपने आप ही ठीक हो जाते हैं और उन्हें एंटी-बायोटिक दवाओं की जरूरत नहीं होती। वे इसकी वजह विषाणुओं की मौजूदगी बताते हैं। मामूली संक्रमण से पीड़ितों को लक्षण ठीक न होने पर दोबारा आने के लिए कहा जाता है। वे कहते हैं कि ये अध्ययन उत्साहवर्द्धक है और डॉक्टरों के पहले से किए जा रहे कार्यों का समर्थन करता है।
यूरोप के 12 देशों के लगभग 2000 लोगों ने इस शोध में अपनी तकलीफ़ के बारे में बताया। शोध में यह पाया गया कि एंटी-बायोटिक दवाओं से इलाज़ किए गए मरीज़ों के लक्षणों और उसकी गंभीरता पर प्रायोगिक दवाओं का इस्तेमाल कर रहे रोगियों की तुलना में कोई अंतर नहीं आया।
लेकिन विशेषज्ञ सावधान करते हैं कि अगर निमोनिया की संभावना हो तो मर्ज़ की गंभीरता को देखते हुए एंटी-बायोटिक दवाओं का इस्तेमाल फिर भी किया जाना चाहिए।
शोध का नेतृत्व करने वाले साउथैम्पटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल लिटिल कहते हैं कि जिन मरीज़ों में निमोनिया होने का संदेह न हो, उनकी सांस से जुड़ी तकलीफों के इलाज में एमॉक्सिलिन एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से कोई राहत नहीं मिलेगी और इससे नुकसान भी हो सकता है।
वह कहते हैं कि शुरुआती इलाज़ के दौरान एंटी-बायोटिक दवाओं के ज्यादा इस्तेमाल से, खासकर उस समय जबकि वे निष्प्रभावी हों, प्रतिरोधक क्षमता बढ़ सकती है। साथ ही दस्त, बेचैनी और उल्टी जैसे दूसरे असर भी हो सकते हैं।
पॉल कहते हैं कि हमारे नतीजों से पता चलता है कि लोग अपने आप ही ठीक हो जाते हैं, लेकिन कम ही मरीज़ों को एंटी-बायोटिक दवाओं से राहत पहुंचेगी और इन लोगों की पहचान की चुनौती बरकरार है। इस बारे में पहले भी शोध हुए हैं कि सीने में संक्रमण संबंधित तकलीफों में एंटी-बायोटिक दवाएं कारगर हैं या नहीं।
खासकर सांस की तकलीफ, कमजोरी, तेज बुखार जैसे लक्षणों में इसके इस्तेमाल से उल्टे नतीज़े भी निकले हैं। छाती से संबंधित समस्याओं का सामना कर रहे बुजुर्गों में हालात बिगड़ने की आशंका रहती है।
शोध में रोगियों को दो समूहों में बांटा गया है। एक जिन्हें एंटी-बायोटिक दवाएं दी गईं और दूसरे जिन्हें प्रायोगिक तौर पर सात दिनों के लिए रोजाना तीन बार चीनी की गोली के रूप में कोई दूसरी दवा दी गई।
अध्ययन में दोनों समूहों के मरीज़ों के लक्षणों की अवधि और उनकी गंभीरता में मामूली अंतर पाया गया। 60 बरस से ज़्यादा उम्र के मरीजों के मामले में भी यही नतीज़े निकले। शोध में इस उम्र वाले लोगों की संख्या एक तिहाई रखी गई थी।
प्रायोगिक तौर पर दूसरी दवा ले रहे मरीज़ों की तुलना में एंटी-बायोटिक दवाओं का इस्तेमाल कर रहे मरीज़ों में मिचली, बेचैनी और दस्त जैसी दूसरी समस्याएं ज्यादा पाई गईं।
प्रतिरोधक क्षमता
ऐसे मामलों में डॉक्टर के पास जाने वाले ज़्यादातर लोगों की तकलीफ़ दरअसल छाती में संक्रमण से जुड़ी होती है। 'ब्रिटिश लंग फाउंडेशन' के डॉक्टर निक हॉपकिन्सन को लगता है कि यह शोध उन मामलों में मददगार साबित हो सकता है जहाँ मरीज़ उनसे एंटी-बायोटिक दवाओं की मांग करते हैं।
उन्होंने कहा कि सीने में हल्के संक्रमण की तकलीफ़ का सामना कर रहे मरीज़ इसकी मांग करेंगे। यह अध्ययन डाक्टरों के लिये भी मददगार साबित हो सकता है। वे मरीज़ों को यह सलाह दे सकते हैं कि एंटी-बायोटिक दवाएं उनके लिये सबसे बेहतर विकल्प नहीं है।
डॉक्टर हॉपकिन्सन कहते हैं कि सीने के ज्यादातर संक्रमण अपने आप ही ठीक हो जाते हैं और उन्हें एंटी-बायोटिक दवाओं की जरूरत नहीं होती। वे इसकी वजह विषाणुओं की मौजूदगी बताते हैं। मामूली संक्रमण से पीड़ितों को लक्षण ठीक न होने पर दोबारा आने के लिए कहा जाता है। वे कहते हैं कि ये अध्ययन उत्साहवर्द्धक है और डॉक्टरों के पहले से किए जा रहे कार्यों का समर्थन करता है।