पाकिस्तान में निजी संदेशों पर सरकार की नजर
Focus 12:17 AM
पाकिस्तान की संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली ने फेयर ट्रायल बिल 2012 आम सहमति से पारित किया है। इसमें आम लोगों के बीच संचार के विभिन्न साधनों के जरिए होने वाली बातचीत को रिकॉर्ड करने की मंजूरी दी गई है।
मुख्य विपक्षी दलों ने इसमें 32 संशोधन सुझाए जिन्हे मंजूर कर लिया गया। इनमें आशंका जताई गई है कि खुफिया एजेंसी इस शक्ति का दुरुपयोग कर सकती हैं। ये बिल अब मंजूरी के लिए संसद के उच्च सदन सीनेट में जाएगा जहां पारित होने के बाद इसे अंतिम मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा।
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने चरमपंथ से निपटने के इरादे से इस बिल को पेश किया है। पाकिस्तान में आम तौर पर माना जाता है कि चरमपंथ संबंधी मामलों में अक़सर सज़ा नहीं होने की वजह से सुरक्षा एजेंसियां चरमपंथी गतिविधियों को नियंत्रित नहीं कर पाती हैं।
नए कानून की पैरवी करने वालों का कहना है कि मौजूदा साक्ष्य अधिनियम में पारिभाषित 'साक्ष्य' तकनीकी युग की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं। उनका कहना है कि इस वजह से अदालतें अपर्याप्त सुबूतों की बुनियाद पर अपराधियों को सज़ा नहीं दे पाती हैं। इस बिल को कथित मुठभेड़ों और लोगों के लापता होने के मामलों से भी जोड़ा जा रहा है।
बिल में आख़िरी समय तक बदलाव होते रहे और इसके अंतिम मसौदे के बारे में पक्के तौर पर पता नहीं है, लेकिन मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि नए बिल में सुरक्षा एजेंसियों को सुबूत जुटाने के लिए नवीनतम तकनीकों और उपकरणों का सहारा लेने की अनुमति दी गई है। इसका आशय ये हुआ कि सुरक्षा एजेंसियां किसी के ईमेल और एसएमएस को रिकॉर्ड करके उन्हें बतौर सुबूत अदालत में पेश कर सकेंगी जहां वे स्वीकार्य होंगे।
मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले लाहौर स्थित डिजिटल राइट्स फाउंडेशन ने इस बिल को पाकिस्तान नें निजता की आधिकारिक तौर पर हत्या करार दिया है। समूह ने एक बयान में कहा, ''ये अधिनियम चरमपंथ के खिलाफ जंग के नाम पर मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ सरकार की हिमायत में काम करेगा। सरकार के अपने मंत्री किसी भी तरह की जांच से महफूज़ रहेंगे और ये किसी भी मुल्क में नागरिकों के साथ समता से एकदम विपरीत है।''
ऐसा ही एक अन्य समूह 'बोलो भी' इंटरनेट की दुनिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए काम कर रहा है। समूह का कहना है कि यह बिल निजता और नागरिक अधिकारों का खुला अतिक्रमण होने के साथ ही संविधान के भी खिलाफ है।
पाकिस्तान के मीडिया में इस बिल पर मिलीजुली प्रतिक्रिया है। कराची से निकलने वाले कारोबारी अखबार बिज़नेस रिकॉर्डर ने नए कानून की खामियों का हवाला देकर इसके दुरुपयोग की आशंका जताई है। वहीं अंग्रेज़ी अखबार 'द न्यूज़' ने भी इस बिल पर अप्रसन्नता जताते हुए लिखा है कि इस कानून का ठीक तरह से पालन नहीं किया गया तो यह बोतल से जिन्न को आज़ाद करने जैसा होगा।
डॉन अखबार ने बिल के प्रावधानों के पीछे गिनाई जा रही वजहों को तार्किक बताते हुए एहतियात बरतने की बात कही है। वहीं नेशन अखबार ने लिखा है कि कानून को समय के हिसाब से बदलने की जरूरत है ताकि चरमपंथ से जुड़े तमाम मामलों को निपटाया जा सके।
मुख्य विपक्षी दलों ने इसमें 32 संशोधन सुझाए जिन्हे मंजूर कर लिया गया। इनमें आशंका जताई गई है कि खुफिया एजेंसी इस शक्ति का दुरुपयोग कर सकती हैं। ये बिल अब मंजूरी के लिए संसद के उच्च सदन सीनेट में जाएगा जहां पारित होने के बाद इसे अंतिम मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा।
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने चरमपंथ से निपटने के इरादे से इस बिल को पेश किया है। पाकिस्तान में आम तौर पर माना जाता है कि चरमपंथ संबंधी मामलों में अक़सर सज़ा नहीं होने की वजह से सुरक्षा एजेंसियां चरमपंथी गतिविधियों को नियंत्रित नहीं कर पाती हैं।
नए कानून की पैरवी करने वालों का कहना है कि मौजूदा साक्ष्य अधिनियम में पारिभाषित 'साक्ष्य' तकनीकी युग की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं। उनका कहना है कि इस वजह से अदालतें अपर्याप्त सुबूतों की बुनियाद पर अपराधियों को सज़ा नहीं दे पाती हैं। इस बिल को कथित मुठभेड़ों और लोगों के लापता होने के मामलों से भी जोड़ा जा रहा है।
बिल में आख़िरी समय तक बदलाव होते रहे और इसके अंतिम मसौदे के बारे में पक्के तौर पर पता नहीं है, लेकिन मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि नए बिल में सुरक्षा एजेंसियों को सुबूत जुटाने के लिए नवीनतम तकनीकों और उपकरणों का सहारा लेने की अनुमति दी गई है। इसका आशय ये हुआ कि सुरक्षा एजेंसियां किसी के ईमेल और एसएमएस को रिकॉर्ड करके उन्हें बतौर सुबूत अदालत में पेश कर सकेंगी जहां वे स्वीकार्य होंगे।
मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले लाहौर स्थित डिजिटल राइट्स फाउंडेशन ने इस बिल को पाकिस्तान नें निजता की आधिकारिक तौर पर हत्या करार दिया है। समूह ने एक बयान में कहा, ''ये अधिनियम चरमपंथ के खिलाफ जंग के नाम पर मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ सरकार की हिमायत में काम करेगा। सरकार के अपने मंत्री किसी भी तरह की जांच से महफूज़ रहेंगे और ये किसी भी मुल्क में नागरिकों के साथ समता से एकदम विपरीत है।''
ऐसा ही एक अन्य समूह 'बोलो भी' इंटरनेट की दुनिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए काम कर रहा है। समूह का कहना है कि यह बिल निजता और नागरिक अधिकारों का खुला अतिक्रमण होने के साथ ही संविधान के भी खिलाफ है।
पाकिस्तान के मीडिया में इस बिल पर मिलीजुली प्रतिक्रिया है। कराची से निकलने वाले कारोबारी अखबार बिज़नेस रिकॉर्डर ने नए कानून की खामियों का हवाला देकर इसके दुरुपयोग की आशंका जताई है। वहीं अंग्रेज़ी अखबार 'द न्यूज़' ने भी इस बिल पर अप्रसन्नता जताते हुए लिखा है कि इस कानून का ठीक तरह से पालन नहीं किया गया तो यह बोतल से जिन्न को आज़ाद करने जैसा होगा।
डॉन अखबार ने बिल के प्रावधानों के पीछे गिनाई जा रही वजहों को तार्किक बताते हुए एहतियात बरतने की बात कही है। वहीं नेशन अखबार ने लिखा है कि कानून को समय के हिसाब से बदलने की जरूरत है ताकि चरमपंथ से जुड़े तमाम मामलों को निपटाया जा सके।